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ऐसी देवियाँ जिनकी कभी पूजा होती थी, अब नहीं होती
भारत एक ऐसा देश है जहाँ देवी-देवताओं की पूजा हजारों वर्षों से होती आ रही है। यहाँ हर गाँव, हर क्षेत्र, हर पर्वत, हर नदी के साथ किसी न किसी देवी का संबंध जुड़ा हुआ है। विशेषकर देवियों की पूजा भारत की संस्कृति में अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। शक्ति, माँ, जननी, रक्षक, संहारक – इन सभी रूपों में देवियों की आराधना की जाती रही है।
लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिवर्तन हुए, वैसे-वैसे कई ऐसी देवियाँ भी थीं जिनकी कभी धूमधाम से पूजा होती थी, पर अब वो भुला दी गई हैं या उनकी पूजा पूरी तरह से बंद हो गई है। आइए इस लेख में उन गुमनाम हो चुकी देवियों की कथा को जाने, जो कभी लोकविश्वास और श्रद्धा की केंद्र थीं।
निकुंभिला देवी – रावण की कुलदेवी
रामायण काल की एक महत्वपूर्ण देवी रही हैं निकुंभिला देवी, जो लंका के बाहरी क्षेत्र में स्थित थीं। कहा जाता है कि रावण का पुत्र मेघनाद इसी मंदिर में यज्ञ करता था और वहाँ की देवी की कृपा से वह अपराजेय हो जाता था।
निकुंभिला देवी को तंत्र साधना और युद्ध की देवी माना जाता था। युद्ध से पहले लंकेश के योद्धा इसी मंदिर में यज्ञ कर के देवी का आशीर्वाद लेते थे। लेकिन राम की विजय के बाद लंका में वैष्णव परंपरा का प्रचलन बढ़ा और निकुंभिला देवी की पूजा धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। आज भी श्रीलंका में कुछ अवशेष मिलते हैं, पर पूजा की परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है।
शीतला मातृका – महामारी की देवी
भारत के ग्रामीण इलाकों में शीतला देवी की पूजा चेचक जैसी बीमारियों से बचाने के लिए की जाती थी। परंतु यह देवी सिर्फ एक नहीं, बल्कि मातृका समूह की एक सदस्य थीं – शीतला मातृका, जिनकी पूजा विशेष रूप से मध्यकाल में उग्र रूप में होती थी।
इन देवियों का रूप रौद्र था – लाल आंखें, काले वस्त्र और हाथों में संहार के अस्त्र। इनकी पूजा रक्तबलि के साथ होती थी, ताकि महामारी और बाल मृत्यु से बचा जा सके। लेकिन चिकित्सा विज्ञान के विकास, वैक्सीनेशन और आधुनिक सोच के चलते इन मातृकाओं की पूजा को अंधविश्वास समझा जाने लगा और धीरे-धीरे इनका अस्तित्व धार्मिक स्मृति तक ही सीमित रह गया।
ग्रामदेवी – हर गाँव की अपनी देवी
प्राचीन भारत में हर गाँव की एक देवी होती थी, जिसे ‘ग्रामदेवी’ कहा जाता था। यह देवी गाँव की सुरक्षा, वर्षा, कृषि और पशुधन की रक्षा के लिए पूजी जाती थी।
इन ग्रामदेवियों के नाम बहुत स्थानीय होते थे – जैसे लल्ली माँ, खेता देवी, झमरिया माता, अम्मई ताई, आदि। इनकी पूजा विशेष तिथियों या आपदाओं के समय होती थी। लेकिन जब गाँवों में शहरीकरण हुआ, लोग शहरों की ओर गए, तो वे अपनी ग्रामदेवियों को भूलते गए। आज ऐसे हजारों मंदिर हैं जहाँ कभी भक्तों की भीड़ लगी रहती थी, अब वहाँ केवल खंडहर हैं।
यक्षिणियाँ – प्रकृति की देवियाँ
वेदों और उपनिषदों में यक्षिणियों को बहुत आदर से देखा गया है। ये देवियाँ वन, जल, पर्वत, वृक्षों और खनिजों की रक्षक मानी जाती थीं। प्रत्येक प्राकृतिक स्थल की एक यक्षिणी होती थी। उदाहरणस्वरूप – वृक्षों की रक्षक ‘वृक्षवाटिका यक्षिणी’, नदी की रक्षक ‘जलयक्षिणी’ आदि।
इनकी पूजा में रक्तबलि नहीं, बल्कि पुष्प, जल और धूप से की जाती थी। इन यक्षिणियों का अस्तित्व प्रकृति के संरक्षण से जुड़ा था। लेकिन जैसे-जैसे मानव ने प्रकृति का दोहन करना शुरू किया, वैसे-वैसे इन देवियों की पूजा भी लुप्त होती गई।
आठ माताओं का समूह
अष्टमातृकाएँ हिन्दू धर्म की एक रहस्यमयी और शक्तिशाली देवी समूह थीं, जिनमें ब्राह्मी, महेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, चामुंडा और नारसिंही शामिल थीं। इनकी पूजा युद्ध और रोगों से बचाने के लिए की जाती थी।
इन देवियों का उल्लेख प्राचीन शिलालेखों, गुप्तकालीन मंदिरों और तांत्रिक ग्रंथों में मिलता है। लेकिन अब इनकी पूजा केवल कुछ तांत्रिक पंथों और पुरातात्त्विक स्थलों तक सीमित रह गई है। लोकजीवन में इनका प्रभाव समाप्त हो चुका है।
छिन्नमस्ता – आत्मबलिदान की देवी
छिन्नमस्ता एक ऐसी देवी हैं जिन्होंने आत्मबलिदान कर के अपने अनुयायियों को तृप्त किया। ये तंत्र की उग्रतम देवियों में से एक मानी जाती थीं। इनका स्वरूप – बिना सिर की देवी, जो अपने ही रक्त से दो सेविकाओं को तृप्त करती हैं – अत्यंत प्रतीकात्मक है।
छिन्नमस्ता की पूजा शक्ति के चरम स्वरूप को दर्शाती है, लेकिन आम जनमानस के लिए यह स्वरूप भयावह हो गया। इसलिए धीरे-धीरे इनकी पूजा समाप्त होती गई और अब केवल कुछ तांत्रिक साधकों द्वारा ही इनकी आराधना की जाती है।
मसानी देवी – श्मशान की देवी
उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मसानी देवी की पूजा श्मशान क्षेत्रों में की जाती थी। यह देवी अघोरी साधकों की रक्षक मानी जाती थीं और उन्हें तंत्र सिद्धियाँ प्रदान करती थीं।
लेकिन जैसे-जैसे तांत्रिक परंपराओं को सामाजिक रूप से हाशिए पर डाला गया, वैसे-वैसे इन देवियों की पूजा भी अपवित्र मानी जाने लगी। अब केवल गिने-चुने साधु-संन्यासी ही इनकी आराधना करते हैं।
पिसाचिनी देवी – रोग व भय की देवी
पिसाचिनी नाम से आज भय उत्पन्न होता है, लेकिन पहले इनका एक अलग ही स्थान था। इन्हें ‘निवारक देवी’ कहा जाता था जो पिशाच, भूत और बुरी आत्माओं को दूर भगाती थीं।
इनकी मूर्तियाँ कई पुराने किलों, तालाबों और खंडहरों में आज भी मिलती हैं। परंतु समय के साथ ‘पिसाचिनी’ नाम का अर्थ ही नकारात्मक बना दिया गया और इनकी पूजा को भय या बुराई से जोड़ दिया गया। धीरे-धीरे लोग इनसे डरने लगे और आराधना बंद कर दी।
जोगिनियाँ – लोकतांत्रिक देवियाँ
राजस्थान, मध्यप्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में जोगिनियाँ नामक देवियाँ पूजी जाती थीं। ये 64 या 81 की संख्या में होती थीं और हर गाँव या क्षेत्र में अलग-अलग नामों से जानी जाती थीं – जैसे करुना जोगिन, रकस जोगिन, फूलवती जोगिन आदि।
इनकी पूजा खासतौर पर स्त्रियाँ करती थीं, लेकिन सामाजिक बदलावों और ब्राह्मणवादी प्रभाव के कारण इनकी पूजा को ‘नीची जाति की परंपरा’ कहा गया और धीरे-धीरे जोगिनियाँ धार्मिक दृश्य से गायब होती गईं।
सती देवी – आत्मबलिदान की देवी
सती परंपरा से जुड़ी देवी, जिन्हें ‘सती माँ’ या ‘सती स्थान’ के रूप में पूजा जाता था, वे भी समय के साथ भुला दी गईं। पुराने समय में जब कोई महिला सती होती थी, तो उस स्थान पर एक स्मारक या मंदिर बना दिया जाता था।
इन स्थानों पर स्थानीय लोग श्रद्धा से पूजा करते थे, लेकिन जब सती प्रथा पर रोक लगी और इसे अमानवीय माना गया, तो इन देवियों को भी नकारात्मक दृष्टि से देखा जाने लगा। अब ऐसे सती मंदिरों को ध्वस्त किया गया या भुला दिया गया।
काली के क्षेत्रीय रूप – उग्र पर छोड़ दिया गया
काली देवी के क्षेत्रीय रूप जैसे ‘भद्रकाली’, ‘दक्क्षिणकाली’, ‘कालरात्रि’, ‘तारा’ आदि की पूजा कभी बंगाल, ओडिशा और असम में बहुत होती थी। लेकिन इनका उग्र स्वरूप, रक्तबलि, और तंत्र साधना के कारण आज की सामाजिक व्यवस्था में ये असहज माने जाने लगे।
अब पूजा के नाम पर केवल सीमित, सौम्य रूपों को अपनाया गया है और उनके मूल, उग्र स्वरूप को तंत्रवाद के नाम पर उपेक्षित किया गया है।
निष्कर्ष
समय के साथ-साथ श्रद्धा, समाज और सत्ता की धारणाएँ बदलती रहती हैं। जो कभी पूज्य था, वो आज उपेक्षित हो सकता है और जो आज लोकप्रिय है, वो आने वाले कल में भुला दिया जा सकता है। ये देवियाँ सिर्फ धार्मिक प्रतीक नहीं थीं, बल्कि समाज की मानसिकता, भय, आस्था और प्रकृति के साथ जुड़ाव की प्रतीक थीं।
आज जब हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपने अतीत को जानें, समझें और उससे जुड़ी उन देवियों की स्मृति को संरक्षित रखें, जिन्होंने कभी हमारी संस्कृति की धुरी को थामा हुआ था।